October 18, 2024

संसद में संवाद नहीं?


मौजूदा सरकार की सोच संभवत: यह है कि संसद बहस या संवाद का मंच नहीं है। बल्कि यह विधायी कार्य के लिए है, जिसे जितनी जल्द संभव हो, निपटा लिया जाए।
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत से पहले ही विपक्ष का असंतोष सामने आया। कांग्रेस ने शिकायत की कि इस सत्र की अवधि इतनी छोटी रखी गई है कि उसमें देश के सामने मौजूद जरूरी मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिलेगा। छोटे से सत्र में पारित कराने के लिए 25 विधेयक सूचीबद्ध किए गए हैँ। इनमें दो ऐसे हैं, जिन्हें वित्त विधेयक की श्रेणी में रखा गया है। इन सभी विधेयकों पर चर्चा के लिए कुल 56 घंटे रखे गए हैँ। यानी हर बिल के लिए सवा दो घंटों से भी कम! और फिर दूसरे सवाल हैं, जिन पर विपक्ष चर्चा चाहता है। लेकिन सरकार की सोच संभवत: यह है कि संसद बहस या संवाद का मंच नहीं है। बल्कि यह विधायी कार्य के लिए है, जिसे जितनी जल्द संभव हो, निपटा लिया जाए। जब दलगत अनुशासन की ऐसी संस्कृति बन गई है कि पार्टियों के अंदर मतभेद की गुंजाइश नहीं बची है, तब विधायी कार्य को लेकर किसी के मन में क्या संशय हो सकता है? अगर पार्टी और सरकार के नेतृत्व ने कोई कानून बनाना सोच लिया और उस पार्टी का संसद में भारी बहुमत है, तो बिल का पारित होना तय है। इस रूप में संसद की भूमिका पर अवश्य ही बहस खड़ी होगी। कभी संसद के सत्र का आम जन के एक बड़े हिस्से को इसलिए इंतजार रहता था कि उसे वहां जन मानस को परेशान कर रहे मुद्दों पर सार्थक चर्चा और उसके आधार पर राजनीतिक आम सहमति उभरने की उम्मीद रहती थी। ऐसी ही उम्मीदों के कारण लोकतंत्र को विमर्श से चलने वाला शासन समझा जाता है। और इसीलिए जब विमर्श और आम सहमति की संभावनाएं खत्म होती दिखती हैं, तो देश के लिए भविष्य के लिए चिंता पैदा होती है। आखिर जन मानस की भावनाएं की जन प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त नहीं होंगी, तो मन का गुबार दूसरे माध्यमों से निकलेगा। फिर संसद का विमर्श सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए भी अनिवार्य समझा जाता है। अगर जवाबदेही ना हो, तो फिर लोकतंत्र का कोई अर्थ ही नहीं बचता। बेहतर होगा कि वर्तमान सरकार इन बारीक बातों पर ध्यान दे।