September 8, 2024

हिमाचल में मुद्दों के दम पर जीती कांग्रेस



पहाड़ों में गिरते तापमान के बीच चुनाव परिणामों ने हिमाचल प्रेदश के मौसम में गर्माहट पैदा कर दी है। चुनाव परिणामों ने नब्बे के दशक से चले आ रहे पैटर्न को दोहराते हुए कई बड़े संकेत भी दिए हैं।
इन संकेतों को ‘पांच साल कांग्रेस और फिर पांच साल बीजेपी’ वाले फार्मूले से हटकर देखने की जरूरत है क्योंकि जहां बीजेपी राष्ट्रीय मुद्दों और चेहरों के साथ राज्य-दर-राज्य जीत रही है वहीं कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। इधर कुछ वर्षो में बीजेपी ने जिस तरह से चुनाव लड़े हैं, उसे देखकर भी इन परिणामों को पैटर्न के तौर पर ही नहीं देखा जा सकता, जबकि हिमाचल में तो पांच वर्षो से बीजेपी की सरकार रही है और केंद्र में अनुराग ठाकुर जैसे मंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष भी इसी प्रदेश से आते हैं। ऐसे में हिमाचल में बीजेपी के हाथ से सत्ता का जाना और कांग्रेस की 40 सीटों के साथ वापसी हाल के चुनावी नतीजों के हिसाब से बड़ी घटना हैं।  
हिमाचल का यह चुनाव राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय मुद्दों और नेताओं के इर्द गिर्द रहा। बीजेपी जहां प्रधानमंत्री मोदी के नाम तो वहीं कांग्रेस स्व. वीरभद्र सिंह के कार्यों को आगे कर चुनाव लड़ रही थी। इस बार कांग्रेस ने इमोशनल कॉर्ड के तौर पर वीरभद्र के नाम को आगे करके ही चुनाव लड़ा। यह कांग्रेस की सोची समझी रणनीति थी। रणनीति में सफल भी हुई। हिमाचल की 68 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी का 25 सीटों पर सिमट जाना और कांग्रेस की 40 सीटें आने के पीछे बीजेपी की अंदरूनी खेमेबाजी की भी बड़ी भूमिका रही है। हिमाचल बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह राज्य है, लेकिन वह राज्य की राजनीति में कभी भी बड़ा फैक्टर नहीं रहे हैं। जैसा कि बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों का अपने गृह राज्यों में रहा है। इसके कारण हिमाचल में बीजेपी के कई गुट बन गए जिनमें एक मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर तो दूसरा प्रेम कुमार धूमल परिवार के इर्द गिर्द बनने लगा। गुटबाजी के कारण बीजेपी के 20-21 पुराने नेता बागी हो गए। उनमें से अधिकतर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गए।  इसका सीधा असर बीजेपी के वोट शेयर पर पड़ा जिसका फायदा कई जगह कांग्रेस के प्रत्याशियों को मिला। लोकल स्तर पर कांग्रेस ने इसका प्रचार भी बड़ा किया। उसकी जीत के मार्जन में उसे इसका फायदा भी मिला।
हिमाचल प्रदेश पहाड़ी राज्य है। वहां 2.25 लाख से ज्यादा सरकारी कर्मचारी और 1.90 लाख के आसपास पेंशनर हैं। सरकारी नौकरी में जाने का एक बड़ा लोभ रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन है। जब से पुरानी पेंशन स्कीम खत्म हुई तब से यह तबका बीजेपी से नाराज चल रहा था। हिमाचल में पिछले कुछ वर्षो में जो आंदोलन हुए उनमें सरकारी कर्मचारियों का पेंशन आंदोलन एक बड़ा आंदोलन रहा है। सरकारी कर्मचारियों के इस आक्रोश को कांग्रेस ने अच्छे से भुनाया। हिमाचल की पहली रैली में ही प्रियंका गांधी ने इस मुद्दे पर बोलते हुए कहा, ‘हमारी सरकार आएगी तो पहली कैबिनेट में पुरानी पेंशन स्कीम को लागू किया जाएगा।’ कांग्रेस की इस घोषणा और बीजेपी को लेकर आक्रोश ने भी सत्ता परिवर्तन का नैरेटिव खड़ा करने में बड़ी मदद की। चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टयिों के साथ इस बार आप भी मैदान में थी।
चुनाव कैम्पेन के आरंभिक दौर में कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार हिमाचल में त्रिकोणीय मुकाबला होगा क्योंकि हिमाचल के बगल वाले राज्य पंजाब में आम अदामी पार्टी की सरकार बन चुकी थी और जोर-शोर से हिमाचल के चुनावों में उतरी थी। लेकिन जैसे-जैसे चुनावी पारा बढ़ता गया वैसे-वैसे आम आदमी पार्टी सिमटती गई। हिमाचल के चुनावी मैदान से आम आदमी पार्टी का गायब होना भी कांग्रेस को फायदा पहुंचा गया। इस बात की तस्दीक हिमाचल के वोट शेयर (बीजेपी-43.00, कांग्रेस- 43.90 और आप-1.10) भी करते हैं। बीजेपी और कांग्रेस के बीच में .90 प्रतिशत का अंतर है। हिमाचल जैसे छोटे राज्य में जहां विधानसभा में जीत-हार का अंतर कम रहता है, वहां पर अगर ‘आप’ का वोट शेयर थोड़ा भी बढ़ता तो उसका सीधा असर सीटों पर पड़ता। पिछले उत्तराखंड, गोवा और अब गुजरात चुनावों के आंकड़ों को देखें तो स्पष्ट होता है कि-जहां-जहां आप का वोट शेयर बड़ा है, वहां-वहां कांग्रेस का वोट शेयर कम हुआ है। इस बार के चुनावों में जयराम ठाकुर की सराकर के खिलाफ बड़े स्तर पर आक्रोश नहीं था लेकिन जमीनी स्तर पर अलग-अलग क्षेत्रों और समूह के बीच जो नाराजगी थी, उसे कांग्रेस ने रणनीतिक तौर पर संगठित करने का प्रयास किया। वह चाहे किन्नौर में जल विद्युत परियोजनाओं के खिलाफ लंबे समय से चल रहे ‘नो मीन्स नो’ का आंदोलन हो या फिर जयराम ठाकुर द्वारा ‘सवर्ण आयोग’ की घोषणा के बाद अन्य तबकों में उपजा आक्रोश हो या सेब पैकिंग के सामान पर जीएसटी लगने से आक्रोशित सेब बागवानी के किसानों का आंदोलन। इन सब मुद्दों को कांग्रेस ने स्थानीय स्तर पर दमखम के साथ उठाया और बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाबी हासिल की है।