चुनाव आयोग की साख का क्या होगा?
पिछले कुछ वर्षों में जिस संवैधानिक संस्था की साख पर सबसे ज्यादा सवाल उठे हैं वह चुनाव आयोग है। कुछ हद तक इसका जिम्मेदार आयोग भी है, जिसने किसी भी चुनावी प्रक्रिया के दौरान विपक्ष की एक शिकायत पर ध्यान नहीं दिया। चुनाव का ऐसा शिड्यूल बनाया, जो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के अनुकूल हो। प्रधानमंत्री से लेकर अनेक बड़े सत्तारूढ़ नेताओं के खिलाफ आई शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की उलटे कार्रवाई का दबाव डालने वाले आयुक्त सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई का शिकार हो गए। आयोग के अपने आचरण के साथ साथ उसकी साख बिगाडऩे में कुछ हाथ सरकार का भी रहा, जिसने नियुक्तियों में मनमानी की। पिछले साल अरुण गोयल को जिस तरह से चुनाव आयुक्त बनाया गया उससे कई सवाल उठे। उस समय चुनाव आयुक्त का एक पद काफी समय से खाली था और अदालत में इस पर सुनवाई हो रही थी। अचानक एक दिन आईएएस अधिकारी अरुण गोयल ने अपने पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का ऐलान किया और अगले दिन उनको चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी बिजली की रफ्तार से हुई इस नियुक्ति पर सवाल पूछा।
बहरहाल, अब एक बार फिर सरकार चुनाव आयोग की साख बिगाडऩे वाला काम करने जा रही है। वह एक विधेयक लेकर आई है, जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए ऐसी कमेटी बनाने का प्रावधान है, जिसमें सरकार का बहुमत हो और साथ ही चुनाव आयुक्तों का दर्जा घटा कर उनको कैबिनेट सचिव के बराबर कर दिया जाए। इससे पहले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद इसके लिए एक कानून बनाए और जब तक कानून नहीं बन जाता है तब तक उसकी बनाई एक कमेटी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई उसमें प्रधानमंत्री के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और लोकसभा में नेता विपक्ष को रखा गया। इस तरह की कमेटी सीबीआई के निदेशक को नियुक्त करती है और सबको पता है कि उसमें भी सरकार के हिसाब से ही नियुक्ति होती है क्योंकि सरकार की बनाई सर्च कमेटी नामों के सुझाव देती है और आज तक यह सुनने को नहीं मिला कि चीफ जस्टिस या उनकी ओर से नामित जज ने सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में सरकार की मर्जी नहीं चलने दी। हर बार नेता विपक्ष के विरोध के बावजूद वही अधिकारी सीबीआई निदेशक नियुक्त होता है, जिसे सरकार चाहती है।
इस लिहाज से देखें तो सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी परफेक्ट दिख रही थी। उससे सरकार को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए थी। सीबीआई निदेशक की तरह उस कमेटी में भी सरकार अपने हिसाब से फैसला कराती। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का काम सरकार सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के सद्भाव पर नहीं छोडऩा चाहती। वह इसे पूरी तरह से अपने हाथ में रखना चाहती है इसलिए उसे यह कबूल नहीं है कि नियुक्ति की कमेटी में चीफ जस्टिस या उनकी ओर से नामित कोई जज शामिल हो। तभी सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का ऐसा विधेयक संसद में पेश किया, जिसमें सर्वोच्च अदालत की बनाई कमेटी की जगह दूसरी कमेटी बनाने का प्रावधान किया गया है। उस कमेटी में प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे और प्रधानमंत्री के अलावा उनकी ओर से नामित एक केंद्रीय मंत्री और लोकसभा में नेता विपक्ष इसके सदस्य होंगे। कमेटी की संरचना से ही साफ हो गया कि इसमें फैसला वही होगा, जो सरकार चाहेगी। सरकार की बनाई सर्च कमेटी संभावित अधिकारियों के नाम सुझाएगी और उसके बाद सरकार के बहुमत वाली कमेटी उसमें से किसी एक नाम पर फैसला करेगी।
नए कानून की धारा 10 (1) के मुताबिक कम से कम वेतन और भत्ते के मामले में चुनाव आयुक्तों का दर्जा घटा कर केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव के बराबर किया जा रहा है। हालांकि चुनाव आयुक्तों के प्रोटोकॉल में कोई बदलाव नहीं होगा। वे पहले की तरह संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत काम करेंगे और उनको हटाने का तरीका भी वही होगा, जो सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने का होता है। यानी उनको महाभियोग चला कर ही हटाया जा सकता है। लेकिन वेतन और भत्तों को कैबिनेट सचिव के बराबर लाने का प्रावधान भी अनायास नहीं किया गया है। सबको पता है कि वेतन और भत्ते के मामले में चुनाव आयुक्तों को कैबिनेट सचिव के बराबर लाने से उनके वेतन में मामूली सा फर्क आएगा। पर इससे चुनाव आयुक्तों का दर्जा घटेगा। सरकार के इस कदम से आयोग की साख घटेगी।
कहा जा रहा है कि जिस तरह से चुनाव आयुक्तों के वेतन और भत्ते को कैबिनेट सचिव के बराबर किया जा रहा है उसी तरह पहले केंद्रीय सतर्कता आयुक्त यानी सीवीसी और केंद्रीय सूचना आयुक्त यानी सीआईसी के मामले में भी किया गया है। लेकिन इनमें और चुनाव आयुक्त में बहुत फर्क है। सीवीसी और सीआईसी कोई संवैधानिक प्राधिकार नहीं हैं, जबकि केंद्रीय चुनाव आयुक्त यानी सीईसी संवैधानिक प्राधिकार है। इसलिए उसके वेतन और भत्तों में बदलाव करना और उसका दर्जा कैबिनेट सचिव के बराबर करना एक बड़ी भूल होगी। अगर प्रोटोकॉल की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट के जज और मुख्य चुनाव आयुक्त नौवें नंबर पर आते हैं, जबकि कैबिनेट सचिव 11वें नंबर पर आते हैं। इसके बीच 10वें नंबर पर केंद्र के राज्यमंत्री आते हैं। इसका मतलब है कि राज्यमंत्री का दर्जा भी मुख्य चुनाव आयुक्त से ऊपर हो जाएगा।
सोचें, क्या इस तरह से चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था के तौर पर काम कर पाएगी और आम नागरिकों की नजर में उसकी साख बन पाएगी? पहले सरकार मनमाने तरीके से उसकी नियुक्ति करेगी और उसके बाद उसका दर्जा सरकार के एक अधिकारी के बराबर होगा। फिर उससे कैसे यह उम्मीद की जाएगी कि वह स्वतंत्र होकर काम करेगा? चुनाव आयोग से उम्मीद की जाती है कि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनान कराने के लिए जरूरी होने पर प्रधानमंत्री या कैबिनेट मंत्री के खिलाफ भी कार्रवाई करे। लेकिन अगर उसका दर्जा राज्यमंत्री से भी नीचे होगा तो उससे अपने से ऊपर के किसी प्राधिकार के खिलाफ कार्रवाई करने की उम्मीद नहीं की जा सकेगी। सोचें, दुनिया में चुनाव आयोग की साख है। अनेक देशों ने अपने चुनाव अधिकारियों को भारत भेज कर प्रशिक्षण कराया या भारत के चुनाव अधिकारियों को अपने यहां बुला कर स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने का तरीका सीखा। लेकिन भारत में इस संवैधानिक संस्था की साख कई कारणों से पहले संदेह के घेरे में है। अब केंद्र सरकार संसद में जो बिल लेकर आई है उसके पास होने पर चुनाव आयोग की साख और बिगड़ेगी।