April 25, 2024

अंधेरे से जूझने के लिए हिंदी का उजाला

आखरीआंख
जून, 1996 की बात है। कर्नाटक निवासी अहिन्दी भाषी जनता दल नेता हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने तो कई प्रेक्षकों ने उनकी सबसे बड़ी कमजोरी यह बताई कि उन्हें हिन्दी तो आती ही नहीं! सवाल उठाये जाने लगे कि इसके रहते वे इस विशाल हिन्दी भाषी देश के प्रधानमंत्रित्व के दायित्व भला कैसे निभायेंगे? एक पत्रकार ने तो खचाखच भरे संवाददाता समेलन में भी उनसे यह सवाल पूछने में संकोच नहीं किया। लेकिन अविचलित देवगौड़ा का बेहद संयत-सा उत्तर था, ‘चिंता मत कीजिए। तकलीफों की भाषा दुनिया भर में एक ही है और मैं उस भाषा को अछी तरह जानता-समझता हूं!Ó सवाल पूछने वाले पत्रकार को आगे कोई और सवाल नहीं सूझा और बात वहीं खत्म हो गई।
अलबत्ता, देवगौड़ा ने खासी तेजी से हिन्दी सीखकर जल्दी ही अपनी कमी दूर कर ली। उन दिनों होश संभाल चुके लोगों को अभी भी याद होगा कि थोड़े ही दिनों बाद राजनीतिक कारणों से उन्हें पद त्यागना पड़ा तो उन्होंने देश के नाम अपना विदाई संदेश हिन्दी में ही दिया था।
अहिन्दी भाषी प्रधानमंत्री के तौर पर देवगौड़ा की विदाई के 23 साल बाद इस हिन्दी दिवस पर बात को उनकी बात से ही शुरू करें तो देखकर संतोष होता है कि भले ही उनके बाद के देश के हिन्दी भाषी प्रधाननमंत्रियों ने भी हिन्दी को उसकी उचित जगह देकर उसे ‘तकलीफों की भाषाÓ बनाने या बनाये रखने को लेकर यादा गभीरता प्रदर्शित नहीं की, हिन्दी ने जहां तक संभव हुआ, न स्वतंत्रता संघर्ष के वक्त से चली आ रही अपनी प्रतिरोध की परपरा को कमजोर पडऩे दिया है, न ही तकलीफजदा तबकों का साथ छोड़ा है-अपने कुछ संस्तरो के हवा का रुख देखकर ‘समय के प्रवाहÓ में बह जाने के बावजूद। हर किसी को उसकी पुरानी पहचान से अलग करने के कठिन दौर से गुजरकर भी हिन्दी कथित ‘गुलामों, गंवारों और जाहिलोंÓ की भाषा बनी रही है,
साथ ही उसने उनके प्रति अपनी संवेदनाओं को मरने नहीं दिया है, तो यह कोई छोटी बात नहीं है। खासकर जब हम ऐसे दौर में जा पहुंचे हैं, जिसमें भारत हर हाल में ‘इंडियाÓ होकर ही बचने को अभिशप्त है और लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था में बदल या ढलकर, जिसमें कुछ लोगों को उसकी सारी उपलब्धियों को ऊपर-ऊपर रोक लेने की आजादी हो और ढेर सारे लोगों को वोट देने, तालियां बजाने व जयकारे लगाने की!
गौर कीजिए, हिंदी को अपनी इस संवेदना, साथ ही चेतना को बचाने के लिए अलगाव, उद्वेलन, घृणा, पुरातनपंथ, पोंगापंथ, संकीर्णताओं व क्षुद्रताओं के कितने हमले झेलने पड़े हैं। साथ ही विज्ञापन, व्यापार व मनोरंजन के क्षेत्रों तक सीमित कर दिये जाने की कितनी साजिशें। ‘वोट मांगनेÓ की इस भाषा को सत्ता व शासन, चिंतन-मनन, ज्ञान-विज्ञान व विचार-विमर्श के दायरों में फिट करना अभी भी किसे अभीष्ट है? अछी बात है कि ऐसे में हिन्दी ने, खासकर उसके निचले कहे जाने वाले संस्तरों ने, समझा है कि उनके लिए अपना पक्ष बदलना अपने अस्तित्व से खेलना होगा। इसी चेतना के तहत उन्होंने डिजिटल होकर या ‘बचÓ कर शीर्ष पर पहुंच जाने की राह चुनने के बजाय गैरबराबरी, दलन, शोषण व अत्याचार के प्रतिकार और प्रतिरोध की आवाजों को बेदम होने से बचाने में शक्ति लगाये रखी है। भले ही साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया के शीर्ष पर अवस्थित कई महानुभाव अभिव्यक्ति के खतरे उठाने के बजाय नाना सत्ता रूपों और उच मध्य वर्गों की विलासलीला के बखान में ही अपनी सार्थकता तलाश रहे हैं।
यकीनन, समय के अंधेरों से जूझने वालों को हिन्दी से ऐसे उजाले की ओर ले जाने वाली भूमिका की ही दरकार है, जो भविष्य की इबारतें पढऩे में उनकी मदद करे और बुरे समय में भी सची अस्मिता व संस्कृति से जोड़े रखे। हमें कामना करनी चाहिए कि हिन्दी कभी इतनी कमजोर न पड़े कि उसे अपनी इस भूमिका पर पुनर्विचार करना पड़े।
यहां याद करना चाहिए कि वर्ष 2015 में 10-12 सितबर को भोपाल में सपन्न हुए दसवें विश्व हिन्दी समेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सिलसिले में एक सौ टके की बात कही थी। यह कि भाषा तो हवा का बहता हुआ झोंका होती है। ऐसा झोंका, जो बगीचे से गुजरे तो उसकी सुगंध और ड्रेनेज से गुजरे तो उसकी दुर्गंध बटोर लेता है। उनके इस कथन के सहारे बात को आगे ले जायें तो आज हिन्दी की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि देश में ड्रेनेज बढ़ते और बगीचे घटते जा रहे हैं। अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा से ही नहीं, जमीन व विरासत तक से कटाव को अभिशप्त नई पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा भले ही दुनिया मु_ी में करने को आतुर हो और इसके लिए पंख फैलाकर उड़ रही हो, हिन्दी की उतनी भी सेवा नहीं कर पा रही, जितनी गुलामी के दौर में गिरमिटिये मजदूरों ने की थी! देश की गुलामी के दौरान सात समुन्दर पार गये वे मजदूर उस गुलामी व लाचारी में भी अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर स्वाभिमान से भरे हुए थे, जबकि यह नयी पीढ़ी उन्हें लेकर कतई इमोशनल नहीं है। हो भी कैसे, जब इस धारणा की शिकार है कि हिन्दी पढऩे या उसमें लिखने से मिलता क्या है? इसी धारणा के चलते हिन्दी भाषी अंचलों के दूरदराज के गांवों तक में चमकते-दमकते इंंिग्लश मीडियम स्कूल अपने हाल पर रोने को मजबूर हिन्दी माध्यम स्कूलों को ऐसी हिकारत की निगाह से देखते हैं, जैसे हिंदी क्षेत्रों में भी अंग्रेजी के बजाय हिंदी ही अवांछनीय हो गयी हो। सवाल है कि हिंदी इस स्थिति से कैसे निजात पायेगी? उसका भविष्य इस सवाल के जवाब पर ही निर्भर करेगा।