कब बनेगी भारत की कृषि नीति धारदार ?
आखरीआंख
यह आंकड़ा माथे पर बल ला सकता है कि अमेरिका में किसान की सालाना आय भारतीय किसानों की तुलना में 70 गुना अधिक है।
जिन किसानों के चलते करोड़ों का पेट भरता है वही खाली पेट रहें यह सय समाज में बिल्कुल नहीं पचता। भारत में किसान की प्रति वर्ष आय महज 81 हजार से थोड़े यादा है, जबकि अमेरिका का एक किसान एक माह में ही करीब 5 लाख रुपये कमाता है। आंकड़े यह भी स्पष्ट करते हैं कि भारत का किसान गरीब और कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या का रास्ता क्यों चुनता है?
किसानों की समस्या इतनी पुरानी है कि कई नीति निर्धारक इस चक्रव्यूह में उलझते तो हैं पर उनके लिए शायद लाइफचेंजर नीति नहीं बना पा रहे हैं। अगस्त 2018 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा नफीस शीषर्क से एक रिपोर्ट जारी किया गया, जिसमें एक किसान परिवार की वर्ष 2017 में कुल मासिक आय 8,931 रुपये बताई गई। बहुत प्रयास के बावजूद नाबार्ड की कोई ताजा रिपोर्ट नहीं मिल पाई, परन्तु जनवरी से जून 2017 के बीच किसानों पर जुटाए गए इस आंकड़े के आधार पर इनकी हालत समझने में यह काफी मददगार रही है। रिपोर्ट यह दर्शाता है कि भारत में किसान परिवार में औसत सदस्य संया 4.9 है। इस आधार पर प्रति सदस्य आय उन दिनों 61 रुपये प्रतिदिन थी। दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में शुमार भारत का असली चेहरा देखना हो तो किसानों की सूरत झांकनी चाहिए। जब रायों की स्थिति पर नजर डाली जाती है तो किसानों की आय में गभीर असमानता दिखाई देती है। सबसे कम मासिक आय में उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, बिहार, ओडिशा समेत पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा आदि शामिल हैं।
जहां किसानों की मासिक आय 8 हजार से कम और 65 सौ से ऊपर है, जबकि यही आय क्रमश: पंजाब और हरियाणा में 23 हजार और 18 हजार से अधिक है। असमानता देखकर यह प्रश्न अनायास मन में आता है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का जो परिप्रेक्ष्य लेकर केंद्र सरकार चल रही है वह कहां, कितना काम करेगा? पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसानों की आय में अंतर किया जाए तो यह साढ़े तीन गुना है। सवाल यह है कि क्या दोगुनी आय के साथ अंतर वाली खाई को भी पाटा जा सकेगा। खास यह भी है कि आर्थिक अंतर व्यापक होने के बावजूद पंजाब और उत्तर प्रदेश किसानों की आत्महत्या से मुक्त नहीं है। इससे प्रश्न यह भी उभरता है कि किसानों को आय तो चाहिए ही साथ ही वह सूत्र, समीकरण और सिद्धान्त भी चाहिए, जो उनके लिए लाइफचेंजर सिद्ध हो। जिसमें कर्ज के बोझ से मुक्ति सबसे पहले जरूरी है। सवाल यह है कि बीते 5 सालों में जिन रायों की ओर से कर्ज माफी का कदम उठाया गया, क्या उससे किसानों की हालत सुधरी? यह योजना सही है या गलत इसे स्पष्ट तौर पर कहना कठिन है पर इसका लाभ हुआ ही नहीं ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। सवाल यह है कि किसानों को राहत कैसे दिया जाए? भारत में किसान समाज और खेती का उपकरण कभी ढांचागत रूप में व्यापक नीति के दायरे में आया ही नहीं। किसान क्या चाहते हैं इस पर भी सरकारों ने ठीक से गौर नहीं किया। इतना ही नहीं उनकी सुरक्षा को लेकर भी सरकारों ने जो कदम उठाए वे भी ठोस नहीं सिद्ध हुए। सरकारों की गलती यह रही कि कम आय, बढ़ती लागत और नीतिगत र्दुव्यवहार के चलते जो कृषि संस्कृति को संकट आया उस समस्या से छुटकारा दिलाने के बजाय ध्यान हटाने के लिए राजनीतिक हथकंडे अपनाए गए।
सवाल यह है कि नीति बनाने वाले किस सूत्र और सिद्धान्त को अपनाएं कि किसान की हालत दीन-हीन की नहीं बल्कि आर्थिक समृद्धि की हो। इन सूत्रों का भी सहारा लेकर सरकार बड़ा परिवर्तन ला सकती है; मसलन सरकार को चाहिए कि किसानों और उनके आश्रितों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराए। किसानों की दशा सुधारने के लिए देश में जल विकास की योजना को सबल किया जाए क्योंकि आधी ही कृषि गैर सिंचित है। किसानों को पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अनुपात में प्रोत्साहित किया जाए। कृषि की तकनीक सस्ती हो, अनायास सरकारी हस्तक्षेप हटे और फसल की उचित कीमत मिले। स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कर सफलता दर सुनिश्चित की जा सकती है। जब तक किसानों को फलक पर खड़ा करने का प्रयास नहीं होगा और केवल इन पर भावनात्मक राजनीति करके वोट खींचा जाता रहेगा तब तक यह दुारियों से बाहर नहीं निकलेंगे। यूरोप और अमेरिकन मॉडल को भी कृषि नीति में लाकर इनके लिए बेहतर प्रयास हो सकता है।