गरीब के सिर में इलाज का बोझ
किसी देश के नागरिकों का स्वास्थ्य उसके नागरिकों को मिलने वाली सस्ती चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सरकारों का दायित्व है कि नागरिकों को सस्ता व सहज इलाज उपलब्ध हो। कोरोना संकट ने देश के चिकित्सातंत्र की विफलता को उजागर किया है। पहले ही देश में करोड़ों लोग महंगे उपचार के चलते गरीबी के दलदल में धंस चुके थे, जिसे कोरोना संकट की भयावहता ने और विकट बना दिया है। विडंबना यह है कि देश में आम आदमी को इलाज का सारा खर्च खुद ही वहन करना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में किसी व्यक्ति को सौ रुपये के इलाज में त्रेसठ रुपये का खर्च वहन करना पड़ता है। इस मामले में हमारे छोटे पड़ोसी देश बेहतर स्थिति में हैं। चीन में जहां सौ में तीस फीसदी, ब्रिटेन-अमेरिका में बीस तो फ्रांस में नौ फीसदी खर्च नागरिकों को वहन करना पड़ता है, शेष राशि सरकारी योजनाओं के जरिये आती है। देश में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की कमी के चलते चिकित्सा सुविधाओं का नितांत अभाव बना हुआ है, जिसके चलते करोड़ों लोग गरीबी के दलदल में धंस जाते हैं। देश की चार फीसदी आबादी ऐसी है, जिसके कुल खर्च में पच्चीस फीसदी इलाज का खर्च शामिल है। कोरोना संकट के दौरान जो दवा, चिकित्सा उपकरणों की कालाबाजारी हुई व निजी चिकित्सालयों के उपचार में मनमानी हुई, उसके चलते कई लोगों को घर, जमीन व जेवर तक बेचने की खबरें आईं। कोरोना संकट के दौरान लोगों ने मोटी रकम अपने पीएफ व सेवानिवृत्ति कोषों से निकाली। चिकित्सा व आर्थिक विशेषज्ञ लंबे समय से मांग करते रहे हैं कि देश के चिकित्सा बजट पर जीडीपी का ढाई से तीन फीसदी खर्च किया जाये। अनुमान है कि इससे आम नागरिकों को चिकित्सा खर्च का महज तीस फीसदी वहन करना पड़ेगा जिसे न्यायसंगत माना जा सकता है।
कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान अस्पतालों के बाहर दम तोड़ते मरीजों, ऑक्सीजन संकट से होने वाली मौतों व दवाओं की किल्लत व कालाबाजारी के चलते दुनिया में देश की जगहंसाई हुई। इस घटनाक्रम को सबक मानते हुए सरकार को नये सिरे से चिकित्सा बजट निर्धारित करने और रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है। यह महज नागरिकों की सेहत का प्रश्न नहीं बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था और देश की सेहत का सवाल भी है। देश के संविधान के तहत जीवन रक्षा के लिये उपचार हासिल करना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। ऐसे में सरकारों का दायित्व बनता है कि पूरे देश में सस्ते उपचार की व्यवस्था करे। हालिया संकट ने बताया है कि इंश्योरेंश आधारित चिकित्सा सुविधाएं नाकाम रही हैं। बड़े जोर-शोर से प्रचारित आयुष्मान योजना का लाभ पात्र लोगों को पर्याप्त नहीं मिल पाया है। जब अस्पतालों में बेड व वेंटिलेटर की सुविधा ही उपलब्ध नहीं तो किसी भी योजना का लाभ कैसे मिल सकता था, जिसकी जेब भारी थी, बेड उसी को मिला। या फिर राजनीतिक रसूख वाले लोगों की सुनी गई। ऐसे में व्यक्ति का इलाज का अधिकार उसकी जेब की क्षमता के अनुरूप होना चाहिए। पिछले दिनों जो लोग अपनों का अंतिम संस्कार न कर पाने के चलते शवों को गंगा-यमुना में बहा रहे थे और नदियों के तटों पर दफन कर रहे थे, उनके लिये कहां तक संभव था कि वे अपनों का महंगा इलाज दे पायें। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि गरीब आदमी की पहुंच में सस्ते इलाज की व्यवस्था करे। स्थानीय प्रशासन द्वारा संचालित अस्पतालों की संख्या में इजाफा किया जाये। रह-रहकर सिर उठा रही कोरोना संक्रमण की लहरें और रूप बदलता वायरस देश के लिये नित नयी चुनौती पैदा कर रहा है। तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच यह काम युद्धस्तर पर किया जाना जरूरी है, जिसके लिये देश में उपलब्ध सभी चिकित्सा पद्धतियों का संकट काल में उपयोग करने की जरूरत है। इसमें भारतीय जीवन शैली व परिवेश के अनुरूप सदियों से अपनायी गई व गरीब की पहुंच वाली चिकित्सा पद्धतियों के अनुभव का लाभ उठाने में गुरेज नहीं करना चाहिए।