वंचितों के हिस्से के अमृत का हक
इन दिनों देश के राजनीतिक गलियारों में और सत्तापतियों में एक होड़ लगी है कि किसी तरह आगामी जनगणना जाति के आधार पर हो। पिछले वर्षों में भी आरक्षण के लिए जातियों के आधार पर कुछ गणना होती रही है और अब जो मांग की जा रही है, उसका रूप कुछ अलग है। भारत में तीन हजार से ज्यादा जातियां, उपजातियां हैं। इन सबकी अलग-अलग गिनती और उसके आधार पर ही इन जातियों के लोगों के विकास के लिए कार्य करना, योजनाएं बनाना, उनके लिए आरक्षण रखना बहुत टेढ़ा काम है। आश्चर्य है कि जिस देश में पहले एक ही जाति होती थी- हिंदी हैं हम वतन हैं, हिंदुस्तान हमारा। अब हिंदी अर्थात हिंदुस्तानी शब्द पीछे रह गया है और जातियां चुनावी रण का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र बन चुकी हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो लगभग एक दर्जन बिहार की विभिन्न पार्टियों के नेताओं को साथ लेकर प्रधानमंत्री को इसी सप्ताह ही मिले हैं।
सर्वविदित है कि भारत सरकार पहले जाति के आधार पर जनगणना करवाने से इनकार करती रही है, पर अब बिहार समेत बहुत से राज्यों से जब यह मांग आने लगी है तो सरकार इस विषय पर यद्यपि अभी कोई निर्णय नहीं ले रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्रता से पूर्व पिछले सैकड़ों वर्षों तक देश में जाति के आधार पर शोषण भी होता रहा है। सावित्री बाई फूले के संदर्भ में सुनने को मिला कि धर्म के कुछ ठेकेदारों ने लोगों को यह विश्वास करवा दिया था कि अगर कोई लड़की शिक्षा प्राप्त करेगी तो उसका पति या पिता मौत के मुंह में चला जाएगा। बहुत पुरानी बात नहीं जब हिंदी की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने मुझे यह बताया था कि उन्हें संस्कृत शिक्षा प्राप्त करने में कितनी कठिनाई आई, क्योंकि लड़कियों को संस्कृत पढ़ाना भी एक प्रकार से धार्मिक अपराध था। यह कटु सत्य है कि जातिवाद की खाई गहरी करने में देश के राजनेताओं का हाथ है।
आज देश में जो परिस्थितियां हैं, उनके तहत गरीब और गरीब होता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बीस करोड़ लोग भारत में भूखे सोते हैं। सरकार कहती है कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन इसलिए देना पड़ता है ताकि वे भूख और बेरोजगारी का सामना कर सकें। ऐसी हालत में अगर कोई जनगणना जाति या वर्ग के आधार पर ही होनी है तो फिर क्यों न उन वंचितों की, की जाए जिन्हें कभी शिक्षा नहीं मिली, दो समय की रोटी नहीं मिली, रहने को छत नहीं, और मेडिकल सुविधा तो दूर की बात है। अब तो एक अभागे बेटे के कफन के लिए महाराष्ट्र के पालघर के कालू पवार को पांच सौ रुपये का ऋण लेना पड़ा, जिसके लिए वह कर्जदाता का बंधुआ मजदूर बना और अपमान न सहते हुए आत्महत्या कर गया। क्या इससे ज्यादा राष्ट्रीय शर्म का और कोई विषय हो सकता है? क्या इससे ज्यादा गरीबी, बेबसी का कोई और वीभत्स उदारण हो सकता है?
पिछले कुछ वर्षों में देश ने देखा कि किसी गरीब का रिश्तेदार, पत्नी, पुत्र, पिता अस्पताल में या गांव में मौत के मुंह में चला जाए तो उसे कंधे पर, साइकिल पर या ठेले पर लाश ढोकर घर या श्मशानघाट तक ले जाना पड़ता था। क्या इस देश का यह सच नहीं कि बेकारी और गरीबी के कारण बच्चों समेत अनेक लोगों ने आत्महत्या की? बेटे के कफन के लिए पांच सौ रुपये का ऋण, जिसे लेना पड़ा, वह कितना मजबूर होगा और कितनी मजबूरी में दुनिया छोड़ गया। क्या इससे शासकों के, समाजसेवियों के, धर्म के ठेकेदारों के या देश की स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने वालों के हृदय छलनी हुए? सवाल तो यह है कि हमारी स्वतंत्रता का अमृत देश के हजारों वीरों का खून देकर मिला है। आजादी का आनंद हम लोग जो मना रहे हैं, वे उसी शहीदी खून का परिणाम है, पर स्वतंत्रता का जो अमृत महोत्सव हम भारतवासी मना रहे हैं, जरा सोचना होगा कि उस अमृत की कुछ बूंदें ही सही, क्या उनके लिए नहीं हैं जो वंचित हैं, भूखे हैं। शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं से बहुत दूर हैं। रोटी तो क्या, कफन के लिए भी लाचार हैं।
कितना अच्छा होता नीतीश कुमार केंद्र के समक्ष यह प्रश्न लेकर आते कि उन सबकी संख्या और दयनीय स्थिति देश के सामने रखें, जिन्हें अमृत महोत्सव में भी अमृत तो दूर, रोटी ही नहीं मिल रही। नए कपड़े तो दूर जो कफन के लिए भी मोहताज हैं। सच तो यह है कि राजनीतिक जाति प्रेम के लबादे में भी सत्ता प्रेम ही झलकता है।
मुझे लगता है कि हालत आज भी वैसी है, लेकिन आवश्यकता यह है कि जनता पूछे उन सबसे जो उनके वोट और टैक्स लेकर केवल अपनी और अपने परिवारों की सुख सुविधाओं में ही मस्त हो जाते हैं। काश! इस अमृत महोत्सव में अमृत की कुछ बूंदें सारे वंचितों को मिलें।