गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा, 15 साल में 0.23 वर्ग किलोमीटर इलाके का अब नामोनिशान नहीं
देहरादून । उत्तराखंड में गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने राज्यसभा को बताया कि गंगोत्री ग्लेशियर ने 15 वर्षों में लगभग 0.23 वर्ग किमी क्षेत्र खो दिया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन भारतीय रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट डेटा का इस्तेमाल करके परिवर्तनों की निगरानी कर रहा है। यादव ने कहा कि इसरो से मिली जानकारी के अनुसार, 2001 से 2016 तक 15 साल की समय सीमा में गंगोत्री ग्लेशियर का 0.23 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पिघलकर समाप्त हो गया है।
यादव का बयान भाजपा नेता महेश पोद्दार के सवाल के जवाब में था, जिसमें उन्होंने उन रिपोर्ट्स की पुष्टि करने की मांग की थी कि वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की उपस्थिति के कारण ग्लेशियर पिघल रहा है। ग्लेशियर किस हद तक पिघल रहा है? पिछले दो दशक में निचली घाटियों में बसावटों की सुरक्षा के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं? इन सवालों को लेकर उन्होंने जानकारी मांगी थी। यादव ने कहा कि हिमालय के ग्लेशियर किस हद तक पीछे हट गए हैं, यह जटिल मामला है। इसका अध्ययन भारत और दुनिया भर के वैज्ञानिकों की ओर से अलग-अलग केस स्टडीज की जांच, डेटा संग्रह और विश्लेषण के जरिए किया जाता है।
ग्लेशियर को लेकर बड़े पैमाने पर अध्ययन की जरूरत
मंत्री ने सदन को बताया, हिमालय में स्थिर, पीछे हटने वाले या यहां तक कि आगे बढऩे वाले ग्लेशियर हैं, जिससे हिमनदों की गतिशीलता की जटिल भौगोलिक और चक्रीय प्रकृति पर जोर दिया जाता है। अध्ययन से पता चलता है कि हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन की उपस्थिति का अंदाजा हुआ है। हालांकि, गंगोत्री ग्लेशियर के बड़े पैमाने पर नुकसान और पीछे हटने पर इसके प्रभाव का अध्ययन नहीं किया गया है।
जलवायु परिवर्तन में ब्लैक कार्बन का अहम रोल
ब्लैक कार्बन वैश्विक जलवायु परिवर्तन में एक प्रमुख कारक के रूप में उभरा है। कार्बन डाइऑक्साइड के बाद यह दूसरे स्थान पर आ सकता है। काले कार्बन कण सूर्य के प्रकाश को मजबूती से अवशोषित करते हैं। यह जीवाश्म ईंधन, जैव ईंधन और बायोमास के अधूरे दहन के कारण प्राकृतिक और मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न होता है।
तापमान में वृद्धि की वजह से हिमनद पीछे हट रहे
गंगोत्री ग्लेशियर की कहानी कई अन्य ग्लेशियरों से अलग नहीं है। अगर आप संसद में पहले के कुछ उत्तरों पर गौर करें, तो यह ग्लेशियर लिटिल आइस एज के बाद से पीछे हट रहा है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण 1870 से इसके पीछे हटने की निगरानी कर रहा है। इसके पीछे हटने की दर 60 और 70 के दशक में तेज हो गई थी। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि की वजह से हिमालय के अधिकांश हिमनद पीछे हट रहे हैं। तापमान में वृद्धि की दर वैश्विक औसत से काफी अधिक है। हाल के दशकों में हिमपात से भी अधिक वर्षा हुई है। इसलिए, काराकोरम में कुछ अपवादों को छोडक़र अधिकांश हिमनद प्रभावित हैं।