लोकतंत्र में चिंताजनक संकेत
( आखरीआंख )
प्रधानमंत्री ने नये जनादेश का समान करते हुए भाजपा मुयालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि मैं जीत के बाद किसी तरह के दुराग्रह के साथ नहीं चलूंगा। मेरे मन में किसी के प्रति कोई नकारात्मक सोच नजर नहीं आयेगी और चुनाव परिणाम के बाद चुनावी अभियान के दौरान उपजी राजनीतिक कटुता अतीत की बात हो जायेगी। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद धार्मिक दुराग्रह के दंभ में आमजनों व अल्पसंयकों को प्रताडि़त करने की घटनाएं विचलित करने वाली हैं। क्या एक बार फिर असहिष्णुता के दौर को लौटाने की कुत्सित कोशिश की जा रही है।? अब चाहे दिल्ली में एक स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. अरुण को धर्म पूछकर जय श्रीराम के नारे लगवाने की घटना हो, गुरुग्राम में मुस्लिम युवक की टोपी उतरवाकर मारपीट कर वंदेमातरम के नारे लगवाना हो, मथुरा में जय श्रीराम का जवाब न देने पर एक विदेशी को चाकू मारने की घटना हो या फिर बेगूसराय में फेरी वाले मोहमद कासिम को विवाद के बाद गोली मारने की घटना हो, हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। क्या फिर सामाजिक समरसता को पलीता लगाने वाली ताकतें दोबारा सक्रिय हो गई हैं? ये वही तत्व हैं जो कभी गोरक्षा के नाम पर अल्पसंयकों को निशाने पर लेते रहे हैं। तो क्या राजग पार्ट-वन की कटुता को दोहराने की कोशिश हो रही है। इससे पहले कि देश?का वातावरण दूषित हो, केंद्र व राय सरकार को ऐसे लोगों को चिन्हित करके सत कार्रवाई करनी चाहिए। इसी तरह सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद भी देश के कई हिस्सों से हिंसा की घटनाएं सामने आईं। चुनाव के दौरान से ही हिंसा से जूझते पश्चिम बंगाल में एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या काकिनाड में की गई और बम हमले में एक किशोरी की मृत्यु हुई। ऐसी ही घटनाएं देश के अन्य भागों में भी देखने में आईं।
चुनाव परिणाम सामने आने के बाद राजनीतिक हिंसा की चर्चित घटना उत्तर प्रदेश के हाईप्रोफाइल अमेठी लोकसभा क्षेत्र से आई जहां राहुल गांधी की परंपरागत पारिवारिक सीट पर जीतकर आई स्मृति ईरानी के करीबी बताये जा रहे भाजपा कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। इस मामले के बाद जो घटनाक्रम सामने आए, उसके राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। ऐसे ही उ.प्र. के बिजनौर में बसपा नेता हाजी एहसान की हत्या कर दी गई। इसी कड़ी में कुछ घटनाएं हरियाणा से सामने आई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राजनेता चुनाव जीतता और हारता है तो उसके बाद हिंसा का क्या औचित्य है? इस हार-जीत को जिंदगी लेने के जुनून में बदलने की वजह क्या है? क्यों इस मनमुटाव व टकराव का अंत चुनाव परिणाम आने के बाद नहीं हो जाता? क्या यह हमारी लोकतंत्र की अपरिपक्वता की निशानी है? या फिर कहीं हम मतदाताओं अथवा नागरिकों को लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के अनुरूप नहीं ढाल पाये? दरअसल, सरकार, राजनीतिक दलों व समाज का दायित्व है कि लोगों को लोकतांत्रिक संस्कृति में जीना सिखायें। लोकतंत्र व्यवस्था संचालन का दायित्व दल व व्यक्ति विशेष को देता है।?जिसकी एक निश्चित अवधि है और एक समय के बाद उसमें बदलाव आना है। जिन कृत्रिम उपायों व संकीर्णताओं तथा किसी बल के बूते परिणामों में बदलाव के जो प्रयास होते हैं, वे नागरिकों की जागरूकता के अभाव में ही होते हैं। जिसके लिये सरकार, संवैधानिक संगठनों, राजनीतिक दलों तथा सामाजिक संगठनों के द्वारा जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। सात दशक के बाद भी यदि देश में चुनाव परिणाम आने के बाद हिंसा की खबरें आती हैं तो ये हमारी कमजोरी को ही उजागर करती हैं। साथ ही उन तत्वों को संबल देती हैं जो आजादी के बाद कहा करते थे कि भारत व्यावहारिक रूप से अभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंगीकार करने में सक्षम नहीं हुआ है।