November 22, 2024

न्याय की सरल भाषा से होगा न्याय का लक्ष्य

आमतौर पर कानून की भाषा जटिल, घुमावदार और मुश्किल होती है और इसके वाक्य लंबे-लंबे होते हैं जो सहजता से आम जनता की समझ में नहीं आती। कानूनी भाषा को सरल और आसानी से समझ में आने वाला बनाने के लिए लंबे समय से सुझाव दिये जाते रहे हैं लेकिन अभी तक स्थिति में बदलाव नहीं आया है। अभी तक तो कानूनों और तमाम विधिक अधिसूचनाओं में प्रयुक्त भाषा की जटिलता पर ही चर्चा होती रही है लेकिन हाल ही में उचतम न्यायालय ने भी एक फैसले में इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह की पीठ ने हि.प्र. उच न्यायालय के एक फैसले को पढऩे में खासा समय लगाने के बाद टिप्पणी की कि इसे जिस तरह से लिखा गया है, उसमें समझने योग्य कुछ नहीं है।
इस फैसले के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया। फैसले में लंबे-लंबे वाक्य थे। उन्होंने तो व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी कि इसे पढऩे के बाद उन्हें टाइगर बाम का इस्तेमाल करना पड़ा।
एक सरकारी कर्मचारी के कदाचार से संबंधित इस मामले में उच न्यायालय द्वारा प्रयुक्त भाषा और वाक्य विन्यास पर न्यायाधीशों ने नाराजगी व्यक्त की और कहा कि फैसला ऐसा होना चाहिए जो पढ़कर समझ में आये। न्यायाधीशों की इन तल्ख टिप्पणियों से ही स्थिति को समझा जा सकता है। अक्सर न्यायिक भाषा आम जनता की समझ में नहीं आती है। स्थिति की गंभीरता का इस तथ्य से भी अनुमान लगाया जा सकता है कि न्यायालय में ‘सरलÓ अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में कानूनों की हैंडबुक्स जारी करने और सरकारी नियमों के मसौदों में समझ में आने वाली आसान भाषा के इस्तेमाल के लिये भी एक जनहित याचिका दायर की गयी थी।
प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस याचिका पर शीर्ष अदालत ने 15 अक्तूबर, 2020 को कानून मंत्रालय और बार काउंसिल ऑफ इंडिया से जवाब मांगा था। यह मसला अभी न्यायालय में लंबित है।
अधिवक्ता सुभाष विजयनर ने इस याचिका में तमाम कानूनों, इससे संबंधित नियमों और अधिसूचनाओं तथा अध्यादेशों में प्रयुक्त भाषा की जटिलता की ओर न्यायालय का ध्यान करते हुए सवाल उठाया है कि आखिर हमारा संविधान, कानून और विधि व्यवस्था किसके लिये है ये देश के नागरिकों के लिये हैं या फिर वकीलों के लिये या न्यायाधीशों के लिये याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि अगर संविधान, कानून, नियम और अधिसूचनायें देश के नागरिकों के लिये हैं तो इनकी भाषा सरल होनी चाहिए ताकि जनता इसे आसानी से समझ सके।
अक्सर यह देखा गया है कि अदालतों में मुकदमे की सुनवाई हो चुकी होती है लेकिन अदालत में मौजूद वादकारी समझ ही नहीं पाता कि आखिर उसके मामले में क्या हुआ है। इसका नतीजा यह होता है कि सुनवाई खत्म होने के बाद वह वकील, मुंशी या फिर अदालत के कर्मचारी के पास जाकर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास करता है।
याचिकाकर्ता का कहना था कि अक्सर यह देखने में आया है कि हम जो बात दो शब्दों में खत्म कर सकते हैं, उसे कहने के लिये अस्पष्ट और जटिलतापूर्ण शब्दों का पूरा मायाजाल इस्तेमाल किया जाता है। इससे अदालत का भी समय खर्च होता है।
याचिकाकर्ता ने कहा कि न्यायालय आम जनता के हितों वाले कानूनों की पुस्तिका सरल अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करने का निर्देश केन्द्र सरकार के कानून मंत्रालय को दे ताकि आम नागरिक अपने अधिकारों और शिकायतों के समाधान से संबंधित कानूनों और प्रक्रिया को सहजता से समझ सकें। चूंकि, कानूनी शिक्षा में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की भी अहम भूमिका होती है, इसलिए याचिका में कानून की शिक्षा में सरल कानूनी लेखन अनिवार्य विषय के रूप में शुरू करने का भी आग्रह किया है।
आज भी थानों में दर्ज होने वाली प्राथमिकी की भाषा को आम नागरिक ठीक तरीके से समझ नहीं पाता है। इसकी वजह इन प्राथमिकी में प्रयुक्त शब्दों में उर्दू और फारसी के शब्दों की भरमार है जबकि आज देश में फारसी समझने वाले लोगों की संया बहुत यादा नहीं है। प्राथमिकी में प्रयुक्त कानूनी भाषा का मामला भी उच न्यायालय पहुंचा तो पता चला अकेले दिल्ली में ही शिकायतें दर्ज करने में करीब 383 उर्दू और फारसी के शब्दों का इस्तेमाल होता है। अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि प्राथमिकी दर्ज करते समय सरल भाषा का इस्तेमाल हो ताकि शिकायतकर्ता और दूसरा पक्ष इसे सहजता से समझ सके।
नि:संदेह अगर कानून की भाषा को सरल बनाना है तो कानून की किताबों में इस्तेमाल होने वाली भाषा और कानून के लेखन कार्य में सरल भाषा का इस्तेमाल सुनिश्चित करना होगा। उमीद है कि आने वाले समय में इस दिशा में ठोस प्रयास किये जायेंगे।