December 23, 2024

कांग्रेस को अपनों ने डुबोया, गैरों में कहां दम था

सोचिए, अगर ममता बनर्जी आज कांग्रेस में होतीं तो क्या होता? पार्टी के टिकट पर 1984 के चुनाव में उन्होंने वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज को हराकर सबसे युवा सांसद बनने का गौरव हासिल किया था। यह अलग बात है कि कांग्रेस उन्हें अपने साथ नहीं रख पाई। ‘रख पाईÓ की जगह अगर हम यह कहें कि ‘रखने की जरूरत नहीं समझीÓ तो वह भी गलत नहीं होगा। अहंकार में डूबी कांग्रेस को तब लगा था कि ममता जैसी नेता तो वह जब चाहे, ‘पैदाÓ कर सकती है। कुछ साल पहले संसद भवन परिसर में मीडिया से बात करते हुए ममता ने भी माना था- ‘मैंने कांग्रेस छोड़ी नहीं थी। मैं कांग्रेस छोडऩा भी नहीं चाहती थी। मुझे तो कांग्रेस ने निकाल दिया था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि हम पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों से लड़ेंÓ। खैर, ममता अगर कांग्रेस में होतीं तो शायद कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता रागिनी नायक को पांच राज्यों के नतीजे आने वाले दिन यह ट्वीट नहीं करना पड़ता- ‘यदि हम (कांग्रेसी) मोदी की हार में ही अपनी खुशी ढूंढते रहेंगे, तो अपनी हार पर आत्ममंथन कैसे करेंगे।Ó बिहार प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद माधब को भी यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती- ‘दूसरे के घर में बच्चा पैदा होने की ख़ुशी बहुत मना लिए, अब खुद भी कोशिश करनी चाहिए, जिससे अपना घर भी खिलखिलाएÓ। रागिनी और आनंद की तकलीफ जिन शब्दों में निकली, वह अब हर कांग्रेसी के भीतर घर बनाती दिख रही है।
असम गंवाने की भी जिम्मेदार
हां, हमने बात इस सवाल से शुरू की थी कि अगर ममता कांग्रेस में होतीं तो क्या होता? लेकिन बात अकेले ममता की नहीं। हिमंत बिस्व सरमा का भी तो उदाहरण सामने है। जो शख्स आज की तारीख में नॉर्थ ईस्ट और खासतौर पर असम में बीजेपी की जीत का शिल्पकार साबित हो रहा है, वह भी तो कांग्रेस में ही था। संयोग देखिए, ममता की तरह हिमंत भी कांग्रेस नहीं छोडऩा चाहते थे। 2001 से वह लगातार चुनाव जीत रहे थे। 2016 के चुनाव से पहले वह कांग्रेस लीडरशिप से जानना चाहते थे कि आखिर उनके लिए क्या सोचा गया है, लेकिन कांग्रेस लीडरशिप के पास हिमंत से मुलाकात के लिए वक्त नहीं था। दिल्ली में कई दिन इंतजार करने के बाद भी हिमंत को जब राहुल गांधी ने मुलाकात के लिए नहीं बुलाया तो वह यह कहते हुए असम लौटे थे- ‘मैं राहुल गांधी से मिलना चाहता था, लेकिन उनके पास वक्त नहीं है। एक दिन ऐसा आएगा कि राहुल मुझसे मिलना चाहेंगे और मेरे पास उनसे मुलाकात के लिए वक्त नहीं होगा।Ó ऐसा हुआ भी। कांग्रेस लीडरशिप से अपमानित होने के बाद 2015 में हिमंत ने बीजेपी में शामिल होने का फैसला किया। उसके बाद राहुल ने उनसे मिलने की बहुत कोशिश की, लेकिन हिमंत इसके लिए तैयार नहीं हुए। उधर, बीजेपी हिमंत का मोल समझ रही थी। उसने उन्हें हाथोंहाथ लिया और हिमंत की अंगुली पकड़ कर वह 2016 के चुनाव में न केवल असम में सरकार बनाने में कामयाब हुई बल्कि नॉर्थ ईस्ट के दूसरे राज्यों में भी उसने एंट्री कर ली। असम में लगातार 15 साल से सत्तारूढ़ कांग्रेस न केवल 2016 का चुनाव हारी बल्कि 2021 के चुनाव में भी वह वापसी नहीं कर सकी। कांग्रेस के कई सीनियर लीडर कहते हैं कि हिमंत अति-महत्वाकांक्षी हैं। वह 2016 में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहते थे, लेकिन सवाल यह है कि राजनीति में कौन महत्वाकांक्षी नहीं है?
आंध्र में भी पैर पर मारी कुल्हाड़ी
आंध्र प्रदेश भी अगर कांग्रेस के हाथ से निकला तो उसकी जिम्मेदार वह खुद है। जिस जगन मोहन रेड्डी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस आज किसी के साथ गठबंधन को तैयार हो रही है, वह भी कांग्रेस नहीं छोडऩा चाहते थे। अपने पिता और कांग्रेस से आंध्र के सीएम रहे वाईएस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद जगन उनकी जगह लेना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई। राजशेखर की मौत के बाद कांग्रेस लीडरशिप ने दो सीएम बनाए। राज्य में राष्ट्रपति शासन तक लगा, लेकिन वह जगन के नाम पर राजी नहीं हुई। आखिरकार उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई और 2019 के विधानसभा चुनाव में आंध्र का मुख्यमंत्री बनकर अपना दमखम साबित कर दिया। 175 सीटों वाली विधानसभा में उनकी पार्टी ने 151 सीटें जीतीं और इतिहास रच दिया। कांग्रेस ने तब 174 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जीत तो दूर उसका एक भी प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाया। 2019 लोकसभा चुनाव में भी आंध्र में कांग्रेस की दुर्गति हुई। वहां लोकसभा की 25 सीटें हैं। जगन की पार्टी ने 25 में से 22 सीटें जीतकर अपनी ताकत का अहसास करा दिया। बाकी बची तीन सीटें तेलुगुदेशम ने जीतीं। कांग्रेस के खाते में एक भी सीट नहीं गई और उसका वोट प्रतिशत भी महज 1.30 ही रहा। ममता से लेकर जगन तक कुछ उदाहरण हैं, जिनसे यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस किस तरह की गलतियां करती आई है। इसलिए अगर वह आज एक के बाद राज्यों में हार रही है तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है। वह पार्टी के अंदर जनाधार वाले और जनाधारविहीन नेताओं का फर्क नहीं समझ पा रही है।